Monday 11 April 2016

जुगनू जैसा जलता-बुझता रहा

जुगनू जैसा जलता-बुझता रहा
पूरे होने की कोशिश में
हर क्षण मिटता रहा
बादल गरजे, बरसे नही 
चातक उपेक्षा का मारा रहा
एक किस्सा हमेशा अधूरा रहा।

खुद के होने में खुद को पाने का
खुद से हर क्षण युध्द करता रहा
शतों सवनो ने सींचा जिनको
उन प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ता रहा
अस्तित्वहीन संसार में खोकर स्वयं को
स्वयं के होने का अर्थ ढूँढता रहा
पर ये किस्सा हमेशा अधूरा रहा।

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